महाभारत काल के 5 श्राप जिसका असर आज भी है।



महाभारत काल के 5 श्राप जिसका असर आज भी है।



हिन्दू धर्म ग्रंथों में अनेकों श्राप का वर्णन है तथा हर श्राप में कोई न कोई कारन छिपा था । कुछ श्राप में संसार की भलाई निहित थी कुछ श्राप का उनके पीछे छिपे कथाओं में महत्तपूर्ण भूमिका थी ।


युधिस्ठिर ने दिया था सभी स्त्रियों को श्राप


परषिद ग्रन्थ महाभारत के अनुसार जब युद्ध समाप्त हुआ । तब माता कुंती ने पांडुओ के पास जाकर ये राहस्ये बताया कि करण उनका भाई था । सभी पांडव उनकी बात सुन कर काफी दुखी हुए । युधिस्ठिर और सारे पांडव ने बिधि बिधान के साथ करण का अंतिम संस्कार किया तथा शोकाकुल होकर माता कुंती के समीप गये । तब उसी छन युधिस्ठिर ने समस्त स्त्री जाती को श्राप दे डाला की आज से कोई भी स्त्री किसी भी प्रकार का गोपनीय बात का रहस्ये नही छिपा पायेगी। इसी युधिस्ठिर के श्राप के कारण आज भी कोई  स्त्री किसी तरह की भी गोपनीय बात छिपा नही सकती है।


श्रृंगी ऋषि का परीक्षित को श्राप


एक बार राजा परीक्षित आखेट हेतु वन में गये। वन्य पशुओं के पीछे दौड़ने के कारण वे प्यास से व्याकुल हो गये तथा जलाशय की खोज में इधर उधर घूमते घूमते वे श्रृंगी ऋषि के आश्रम में पहुँच गये। वहाँ पर शमीक ऋषि नेत्र बंद किये हुये तथा शान्तभाव से एकासन पर बैठे हुये ब्रह्मध्यान में लीन थे। राजा परीक्षित ने उनसे जल माँगा किन्तु ध्यानमग्न होने के कारण शमीक ऋषि ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। सिर पर स्वर्ण मुकुट पर निवास करते हुये कलियुग के प्रभाव से राजा परीक्षित को प्रतीत हुआ कि यह ऋषि ध्यानस्थ होने का ढोंग कर के मेरा अपमान कर रहा है। उन्हें ऋषि पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने अपने अपमान का बदला लेने के उद्देश्य से पास ही पड़े हुये एक मृत सर्प को अपने धनुष की नोंक से उठा कर ऋषि के गले में डाल दिया और अपने नगर वापस आ गये।
शमीक ऋषि तो ध्यान में लीन थे उन्हें ज्ञात ही नहीं हो पाया कि उनके साथ राजा ने क्या किया है किन्तु उनके पुत्र ऋंगी ऋषि को जब इस बात का पता चला तो उन्हें राजा परीक्षित पर बहुत क्रोध आया। ऋंगी ऋषि ने सोचा कि यदि यह राजा जीवित रहेगा तो इसी प्रकार ब्राह्मणों का अपमान करता रहेगा। इस प्रकार विचार करके उस ऋषिकुमार ने कमण्डल से अपनी अंजुली में जल ले कर तथा उसे मन्त्रों से अभिमन्त्रित करके राजा परीक्षित को यह श्राप दे दिया कि जा तुझे आज से सातवें दिन तक्षक सर्प डसेगा।


कुछ समय बाद शमीक ऋषि के समाधि टूटने पर उनके पुत्र ऋंगी ऋषि ने उन्हें राजा परीक्षित के कुकृत्य और अपने श्राप के विषय में बताया। श्राप के बारे में सुन कर शमीक ऋषि को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने कहा - "अरे मूर्ख! तूने घोर पाप कर डाला। जरा सी गलती के लिये तूने उस भगवत्भक्त राजा को घोर श्राप दे डाला। मेरे गले में मृत सर्प डालने के इस कृत्य को राजा ने जान बूझ कर नहीं किया है, उस समय वह कलियुग के प्रभाव में था। उसके राज्य में प्रजा सुखी है और हम लोग निर्भीकतापूर्वक जप, तप, यज्ञादि करते रहते हैं। अब राजा के न रहने पर प्रजा में विद्रोह, वर्णसंकरतादि फैल जायेगी और अधर्म का साम्राज्य हो जायेगा। यह राजा श्राप देने योग्य नहीं था पर तूने उसे श्राप दे कर घोर अपराध किया है। कहीं ऐसा न हो कि वह राजा स्वयं तुझे श्राप दे दे, किन्तु मैं जानता हूँ कि वे परम ज्ञानी है और ऐसा कदापि नहीं करेंगे।राजा परीक्षित के जीवन रहते में कलयुग का इतना साहस नही था कि वो हाबी हो सके परंतु उनकी मृतयु के पश्चात ही कलयुग पूरी पृथ्वी पर हाबी होगया।


श्री कृष्ण ने दिया अश्वत्थामा को श्राप


महाभारत के युद्ध की समाप्ति के बाद अश्वत्थामा ने पांडवों के पुत्रों का छल से वध किया था। पुत्रशोक में जब पांडवों ने श्रीकृष्ण के साथ अश्वत्थामा का पीछा किया तो वे भाग गए। फिर भी जब अर्जुन ने उनका पीछा न छोड़ा तब अश्वत्थामा ने अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र चल दिया।उससे बचने के लिए अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। तब महर्षि वेदव्यास के कहने पर अर्जुन ने अपना ब्रह्मास्त्र वापस लौटा लिया, लेकिन अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र लौटाने का ज्ञान नहीं था। तब उन्होंने अपने अस्त्र की दिशा बदल कर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी।

क्रोधित होकर भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणि निकाल ली और उन्हें श्राप दिया की तुम कलयुग के अंत तक इस पृत्वी पर रहोगे किसी भी जगह किसी भी व्यकिती से तुम्हारी बातचीत नही हो सकेगी। तुम्हारे शरीर से हमेसा पिब और लहू की गंध निकलेगी इसलिए तुम मनुषय के बीच में नही रहोगे वन में पड़े रहोगे।


माण्डव्य ऋषि को यमराज का श्राप


जिसके अनुसार यमराज को माण्डव्य नामक एक ऋषि ने श्राप दिया था. इस ज्ञानी ऋषि को यमराज द्वारा दिया गया दंड स्वीकार नहीं हुआ. मृत्यु के बाद माण्डव्य ऋषि का यमलोक की ओर गमन हुआ. तब यमराज ने दंड संहिता में से ऋषि को कांटों की सूली पर बैठने का निर्णय सुनाया. ये सुनकर ऋषि को बहुत आश्चर्य हुआ क्योंकि उन्होंने जीवनभर अच्छे कर्म ही किए थे.  इस प्रकार व्यथित होकर माण्डव्य ऋषि यमराज के पास पहुंचे और उनसे पूछा कि ‘मैंने अपने जीवन में ऐसा कौन सा अपराध किया था कि मुझे इस प्रकार का दंड मिला.


तब यमराज ने बताया कि जब आप 12 वर्ष के थे, तब आपने एक कीट की पूंछ में सींक चुभाई थी, उसी के फलस्वरूप आपको यह कष्ट सहना पड़ा. तब ऋषि माण्डव्य ने यमराज से कहा कि 12 वर्ष की उम्र में किसी को भी धर्म-अधर्म का ज्ञान नहीं होता. तुमने छोटे अपराध का बड़ा दण्ड दिया है. यहां यमलोक में विराजमान होकर निर्णय सुनाना बहुत सरल है परंतु भूलोक में जीवन-मृत्यु के बंधन के बीच पड़कर समस्याओं से जूझना बहुत कठिन है. इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि तुम्हें शुद्र योनि में एक दासी पुत्र के रूप में जन्म लेना पड़ेगा. ऋषि माण्डव्य के इसी श्राप के कारण यमराज ने महात्मा विदुर के रूप में जन्म लिया।


उर्वशी का अर्जुन को श्राप



जब अर्जुन सशरीर इन्द्र-सभा में गया तो उसके स्वागत में उर्वशी, रंभा आदि अप्सराओं ने नृत्य किए। तब अर्जुन के रूप - सौंदर्य पर उर्वशी मोहित होगई, तब उर्वशी अर्जुन के निवास स्थान पर गई और प्रणय निवेदन किया, साथ ही 'इसमें कोई दोष नहीं लगता' इसके पक्ष में अनेक दलीलें भी दीं, किंतु अर्जुन ने अपने दृढ़ इन्द्रिय-संयम का परिचय देते हुए कहा- मेरी दृष्टि में कुंती, माद्री और शची का जो स्थान है, वही तुम्हारा भी है। तुम पुरु वंश की जननी होने के कारण आज मेरे लिए परम गुरुस्वरूप हो। हे वरवर्णिनी! मैं तुम्हारे चरणों में मस्तक रखकर तुम्हारी शरण में आया हूं। तुम लौट जाओ। मेरी दृष्टि में तुम माता के समान पूजनीया हो और पुत्र के समान मानकर तुम्हें मेरी रक्षा करनी चाहिए। उर्वशी अपने कामुक प्रदर्शन और तर्क देकर अपनी काम-वासना तृप्त करने में असफल रही तो क्रोधित होकर उसने अर्जुन को 1 वर्ष तक नपुंसक होने का शाप दे दिया। अर्जुन ने उर्वशी से शापित होना स्वीकार किया, परंतु संयम नहीं तोड़ा।


जब यह बात उनके पिता इन्द्र को पता चली तो उन्होंने अर्जुन से कहा, 'हे पुत्र! तुमने तो अपने इन्द्रिय संयम द्वारा ऋषियों को भी पराजित कर दिया। तुम जैसे पुत्र को पाकर कुंती वास्तव में श्रेष्ठ पुत्र वाली है। उर्वशी का शाप तुम्हें वरदान रूप सिद्ध होगा। भूतल पर वनवास के 13वें वर्ष में तुम्हें अज्ञातवास करना पड़ेगा, उस समय यह सहायक होगा। उसके बाद तुम अपना पुरुषत्व फिर से प्राप्त कर लोगे।'

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